Thursday, October 22, 2009

जीवन की सार्थकता

जीवन में सार्थकता की तलाश में, हर एक कदम रखते गए ;
हर कदम के बाद हम तो, और भी खोते गए ।
हर बार कुछ करना चाहा, जो एक नयी पहचान दे;
किंतु हर वक्त हम तो, परिभाषाओं की खोज में उलझे मिले
हर बार नए रास्ते खोजे और बढ़ चले हम जोश में
किंतु ना जाने क्यूँ;
हर नए रास्ते पर हम रास्ते दोहराते मिले ।



किंतु अब लगता है,
जीवन की प्रगति का मसला मेरे समझ में आया है;
अपनी इस सार्थकता की तलाश को मैंने खोखला पाया है ।
यह समस्या मेरी नहीं कईयों की है,
जिन्होंने अपने जीवन की प्रगति को समझने में भूल की है ।
वास्तव में देखा जाए तो यह केवल नजरों का खेल है,
इसीलिए किसी की जिंदगी उसके लिए सफल या असफल है ।
जीवन में परिवर्तन इतने धीरे हैं होते , हमें कभी भी महसूस नहीं होते;
हमारी नज़रों के सामने जीवन युहीं निकल जाता है ,
हमारे लिए कुछ भी सार्थक नहीं हो पाता है ।


लेकिन वास्तविकता यह तो नहीं होती है,
हम सभी ने अपने जीवन में प्रगति की होती है ।
हर कोई अपने जीवन में कुछ न कुछ सार्थक अवश्य करता है,
किंतु यह समय का चक्रव्यूह हमें महसूस नहीं होने देता है ।
यह समय हमें महसूस नहीं होने देता कि हमने कुछ पाया है ,
हमें तो लगता है कि हमने बस कीमती क्षणों को गवाया है ।

और हम भागते रहते हैं,
उन क्षणों को पकड़ने के लिए, अपने आपको साबित करने के लिए.....
शायद हम समय के इस खेल को समझ नहीं पाते या फ़िर समझना नहीं चाहते ।
यह प्रक्रिया चलती रहती है, हमारे प्रश्न जस के तस रहते हैं...
जीवन में वही भागमभाग, वही जीवन के सार्थकता की पुरानी आकांक्षा .......