Friday, January 8, 2010

बदलाव कहाँ आया है ?

आज निकले हैं दुनिया देखने,
कहते हैं कि ये बदल गयी है |
कहते हैं,
लोग बदल गए हैं, जीने का ढंग बदल गया है ;
शायद मैं ही नहीं बदला |
सब ने कहा,
अपने बंद पिंजरे से बाहर निकलो,
देखो कितना कुछ बदल गया है |
हर कोई तेजी से बदल रहा,
तुमसे आगे निकलता जा रहा |
तुम हो कि वहीँ के वहीँ,
पिंजरे में सड़ रहे हो,
बस लिख रहे हो,
और पता नहीं क्यूँ गा रहे हो |

अंतत: मैं निकल ही पड़ा,
इस बदली दुनिया को देखने;
अपने पिछड़ेपन को पहचानने,
लोगों कि तरक्की का राज जानने |
लेकिन क्या कहूं, क्या लिखूं....
मुझे तो बदलाव नज़र ही नहीं आता |
माँ की दुलार, पापा की डांट....अभी भी वही है,
दीदी के राखी का प्यार अभी भी वही है,
दादी की गोद में सिर रखकर गाँव भर की कहानिया सुनना,
ये तो नहीं बदला;
दादा जी के साथ खेत-खेत घूमना, ये तो नहीं बदला |
अभी भी भूखे नंगे हर जगह दिख जाते हैं ,
दो जून की रोटी के लिए खून जलाते मिल जाते हैं |
रेलगाडियों में भिखारियों की संख्या तो कम नहीं हुई,
अभी भी खेलने वाले हाथ, पानी की बोतलों और झाडू के साथ दिख जाते हैं |

तो फिर बदला क्या है ?
शायद हाँ,
बुढ़ापे में माँ-बाप का हाथ छोड़ देना बदला है,
बाहर निकल कर घर वालों को पिछड़ा कहना बदला है,
हर जगह नैतिकता का चीर हरण करना बदला है,
बड़ों की हर तर्क को जनरेशन गैप कह देना बदला है |

लगता है लोगों ने इन्हीं को ही बदलाव मान लिया,
भौतिक परिवर्तनों को ही बदलाव मान लिया,
कच्ची पगडंडियों की जगह पक्की सडकों को ही तरक्की मान ली |
लेकिन हम भूल क्यूं जाते हैं,
ये तो अवश्यम्भावी हैं;
हम भूल क्यूं जाते हैं कि,
गुफा से महलों तक का सफ़र भी हमने तय किया है,
बंदरों कि चिं-चिं से भाषा और सभ्यता भी हमने बनायी है |
तो इस जरा से परिवर्तन को हम प्रगति और क्रन्तिकारी बदलाव मान लेते हैं?
वसुधैव कुटुम्बकम का नारा देने वालों कि सोच इतनी छोटी कैसे हो सकती है ?

मैं तो कहता हूँ, बदलाव कहाँ आया है ?
बदलाव तो तब आएगा, जब न भूखे रहेंगे न नंगे रहेंगे,
जब पढने-खेलने वाले हाथों में झाडू और कटोरा नहीं दिखेंगे,
जब भौतिकवादिता के साथ नैतिकता कदम मिलाकर चलेगी,
और हम माता-पिता के पैर छूकर मंगल पर कदम रखेंगे....