Sunday, May 30, 2010

कविताओं में भी एक दुनिया होती है...

कविताओं में भी एक दुनिया होती है...
कविता कभी कवि की कल्पना होती है,
तो कभी यह विचारों का प्रवाह होती है |
कभी यह लोगों को व्यंग्य से हंसाती है,
तो कभी लोगों को वास्तविकता से रुलाती है |
कभी यह पुष्प की अभिलाषा होती है,
और समाज में चेतना फैलाती है ;
तो कभी चक्रधर की गलियां होती हैं,
और इस समाज पर कटाक्ष कर जाती हैं |
कभी हमारी भावनाएं कहीं खो सी जाती हैं ,
और ये उनका पुनः एहसास कराती हैं |
तो कभी गुलज़ार के शब्दों में मकाँ की उपरी मंजिल के माध्यम से,
ये सब कुछ कह जाती हैं |
कविताओं में भी एक दुनिया होती है|
कविताओं में भी एक दुनिया होती है|

कभी लोगों के अनुभव तो कभी उनकी कल्पनाएं ,
तो कभी इनमे भावनाएं होती हैं|
कभी लोगों के अनछुए ख्वाब तो कभी जीवन का कोई हसीन पल,
तो कभी इनमे लोगों की दबी हुई इच्छाएं होती हैं;
कभी ये लोगों को अनंत आसमां में उड़ने की शक्ति प्रदान करती हैं,
तो कभी प्रेरणा तो कभी जीवन की भक्ति प्रदान करती हैं |
कविताओं में भी एक दुनिया होती है|
कविताओं में भी एक दुनिया होती है|

कविता, अगर पाठक के मन को भा जाए,
उन तक एक सन्देश पहुंचाए ,
उनके चेहरे पर मुस्कान लाये,
उनको थोडा प्रेरित कर जाए ,
तो कवि का लेखन सफल हो जाए , कवि का परिश्रम सफल हो जाए |
बस इतना समझ लीजिये, ऐसी ही कविता सफल होती है |
कविताओं में भी एक दुनिया होती है....कविताओं में भी एक दुनिया होती है....

Saturday, May 29, 2010

माँ, बस तुम जल्दी चली आओ.....

तुम्हीं मेरी प्रेरणा, तुम्ही मेरी कल्पना ;
तुम्हीं मेरी आशा, तुम्हीं मेरा विश्वास |
तुम मेरे जीवन में हो, तुम मेरे रग-रग में हो ;
तुम मेरे अस्तित्व का कारण हो, हर दर्द का निवारण हो ;
तुम मेरे जीवन की शक्ति हो , तुम्हीं मेरी भक्ति हो |

मैंने तुम्हें देखा नहीं है,
ना ही तुम्हारे मधुर शब्दों से मेरे कान गुंजित हुए हैं;
फिर भी पता नहीं क्यूँ ,
तुम्हारे स्पर्श की अनुभूति सी लगती है|
ऐसा लगता है,
तुम यहीं कहीं आसपास उपस्थित मुझे देख रही हो |

यहाँ सब कहते हैं,
मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई नहीं,
फिर भी पता नहीं क्यूँ , मुझे लगता है
तुम आओगी जरूर आओगी
आओगी और मुझे अपने सीने से लगा लोगी |
तब मैं अपनी सारी परेशानियाँ,
तुम्हारे गोद में सिर रखकर कह सकूँगा,
सबकुछ भुलाकर, तुम्हारी गोद में
चैन से सो सकूँगा |

यही आशा मुझे आधे पेट भी जिलाए रखे है ,
यही आशा मुझे इन निराशाओं में जिलाए रखे है |
मैं इन सारी परेशानियों को हँस कर सह लेता हूँ ,
क्यूंकि मुझे मालूम है, तुम्हारे आते ही ये सब ख़त्म हो जाएँगी |
और फिर मुझे अनाथ कहने वाले,
इन सब के मुँह पर चुप्पी का ताला लग जाएगा |

लेकिन हाँ माँ
मैं एक बात कहना चाहता हूँ ,
बस तुम जल्दी चले आओ |
मैं भूखे पेट तो रह सकता हूँ
लेकिन अब ये ताने सहे नहीं जाते|
यह अनाथ शब्द गाली सा लगता है,
मेरे धैर्य को खोखला सा कर जाता है |
माँ, अब ये सब सुना नहीं जाता, सहा नहीं जाता ;
मुझे कुछ और नहीं चाहिए;
बस तुम जल्दी चली आओ|
माँ, बस तुम जल्दी चली आओ......

Tuesday, May 25, 2010

प्रश्नों के साथ.. उत्तरों की तलाश में.....

जैसे जैसे उम्र ढलती जाती है ,
जीवन की समस्याएं हमें उलझाएं जाती हैं,
हमारे हर कर्तव्य तार्किक होते जाते हैं,
और हम.....हर वक़्त हम कुछ न कुछ खोते जाते हैं |

हम उस हर चीज को भुला देते हैं... जो हमारे बचपन से जुडी होती है;
हमारा अदम्य साहस, हमारी जिज्ञासा, हमारी निर्दोषता, हमारी निष्कपटता....
और सबसे महत्वपूर्ण... हमारी कल्पनाएँ....|
सब कहीं खो सी जाते हैं...
हम भूल जाते हैं,
हमारे जीवन के सबसे अच्छे दिन... हमारा बचपन...
इन कल्पनाओं के सहारे ही तो बीता है |
बचपन की उस अज्ञानता में.... हमारे कल्पनाओं की उड़ान असिमित थी,
हम अपनी कल्पनाओं में अपनी ही दुनिया बनाते थे... बिगाड़ते थे...
हमारे अपने सपने थे और उन्हें पाने की अपनी ही ललक थी|

किन्तु,
ज्ञान का दायरा बढ़ते ही....हम बड़े व्यवहारिक हो जाते हैं..
बचपन से जुडी हर चीज हमें अव्यवहारिक लगने लगती है....
हम भयभीत होने लगते हैं...
जीवन,सफलता...ना जाने कितनी ही चीजों के लिए...|

और कल्पनाओं को.....बचपना, बचपन की नादानी कह भुला देते हैं....
हम भूल जाते हैं.... इन कल्पनाओ में कितनी शक्ति है....
समस्याओं को हल करने की...आशा प्रदान करने की....
मन को एक नयी उड़ान देने की...कुछ नया कर गुजरने की...|

लेकिन ना.. हम सब भूल जाते हैं....
तार्किक बन जाते हैं....व्यवहारिक बन जाते हैं |

कभी-कभी तो लगता है...
हमारा ज्ञान ही सबसे बड़ा दुश्मन है... हमें दुखी रखने का सबसे बड़ा कारण हैं.....
लगता है इसी की वजह से हमारी कल्पनाएँ कहीं खो सी जाती हैं....
और हम इस तार्किक और व्यवहारिक दुनिया में खोये रहते हैं....
प्रश्नों के साथ.. उत्तरों की तलाश में.....|

Friday, May 14, 2010

खुद को तलाशते, अब बढ़ते ही जाना......

निकला अकेले हूँ इस सड़क पर,
नहीं कोई मंजिल नहीं कोई साथी,
तन्हाँ अकेले मुसाफिर यूँ बनकर,
अकेले चला जा रहा इस डगर पर |

घर को है छोड़ा, है रिश्तों को तोडा,
खुद को समझने अकेले ही निकला,
घुमक्कड़ बना अब जीवन है जीना,
न है अब रूकना ना ही है अब डरना |

न पाने की चाहत है, न खोने का डर,
भविष्य की न चिंता, न अतीत का डर,
किसी को ना दिखलाना, ना है अब समझाना,
खुद को तलाशते, अब बढ़ते ही जाना |