Saturday, November 27, 2010

ऐ नियति....

ऐ नियति , 
तुने कितने सपने दिखाए थे,
मन में ना जाने कितने ही अरमान जगाये थे |
तेरे सहारे,
एक स्वर्णिम भविष्य की कल्पना की थी,
चिलचिलाती धूप में छाँव की तमन्ना की थी |
तेरे भरोसे,
सपनों की एक दुनिया बनायी थी,
इच्छाओं आशाओं की इक पुटली सजायी थी |
सोचा था, 
अपने इस वीरान जीवन को सतरंगी कर दूंगा,
इन दुःख और निराशा के बादलों को भेद दूंगा |  

पर ना, 
तुझसे  मेरी ख़ुशी देखी ना गयी,
एक सामान्य मनुष्य की महत्वाकांक्षा सही ना गयी |
मेरे हर पथ में तुने कांटे बोंये, 
हर चीज छिनी जो मुझे प्यारी थी,
तुने मेरे हर सपने तोड़े, 
मेरी जरा सी ख़ुशी भी तुझे ना गँवारी थी? 

पर तुने क्या सोचा,
इन सबसे मैं पराजित हो जाऊंगा, निराश हो जाऊँगा ?
हताश होकर क्या अपनी महत्वाकांक्षाओं को भूल जाऊंगा ?

तो मैं बस तुझसे कहना चाहता हूँ , 
तुने अभी मेरा चरित्र समझा ही नहीं है,
मेरी इच्छाओं की गहारियों को नापा ही नहीं है |
तुने मेरी चाल जरूर धीमी कर दी है ,
पर मैं हताश नहीं हूँ, निराश नहीं हूँ,
मैंने अपनी महत्वाकांक्षाओं को छोड़ा नहीं है,
अपनी इच्छाओं को त्यागा नहीं है | 
तुझे जीतनी चालें चलनी है, तू चल दे;
तुझे जीतने कंकड़ बिछाने हैं, बिछा दे ;
पर याद रख, 
तेरे बनाये इन तमाम झंझावातों को मैं पार कर लूँगा,
देर से ही सही, हर सफलता मैं प्राप्त कर लूँगा |
तू मुझे मेरे पथ से विचलित ना कर पाएगी, 
लाख कोशिशें कर ले, मुझे परास्त नहीं कर पाएगी |


Monday, November 22, 2010

आइये इस ज़िन्दगी नामक किताब का नया संस्करण निकाला जाए....

अपनी ज़िन्दगी से हमें कई शिकायतें हैं.....

कहीं ना कहीं हम सब अपनी ज़िन्दगी से उब चुके हैं ,
इन तमाम परेशानियों से खिंच चुके हैं |
हम सबके जीवन में 
कई तरह की चिंताएं है ,
तमाम असफलताएं हैं , 
दबी-कुचली  इच्छाएं हैं . 
ना जाने कितनी ही....आधी-अधूरी  आशाएं हैं |

इन सब के चक्कर में ,
हमने जीवन को भागमभाग का एक खेल बना रखा है
ज़िन्दगी की किताब के अधिकांश पन्नों को ,
दुःख और परेशानियों से भर रखा है | 
इन पन्नों में खुशियों का कहीं नामों निशाँ नहीं दीखता;
इनमें हर पल एक मातम सा हो रखा है |

और हम बस, इन्हीं पन्नो को पलटते जा रहे हैं,
इससे ही ज़िन्दगी परिभाषित करते जा रहे हैं | 


मैं तो कहता हूँ ,
ज़िन्दगी की ये किताब अब पुरानी हो गयी है |
आइये इस ज़िन्दगी नामक किताब का नया संस्करण निकाला जाए ;
नए पन्ने जोड़े जाएँ, नए अध्याय जोड़े जाएँ |

आइये, इसमें जोड़ते हैं उन पन्नो को, उन छोटे-छोटे तमाम पलों को, 
जिन्हें हम इस भाग दौड़ में भुला देते |
आइये जोड़ते हैं उन तमाम छोटी छोटी खुशियों को,
जिनके मायने आज बदल गए हैं | 
आइये दुबारा खोजते हैं उन रिश्तों को,
जिन्हें हम आगे बढ़ने के चक्कर में भूल चुके हैं |
आइये जोड़ते हैं उन आदर्शों को,
जो आज किताबी बातें बनकर रह गए हैं |  
आइये जोड़ते हैं उन अहसासों को, उन अनुभूतियों को 
जो हमें इंसान बनती हैं |

आइये जीने रहने का मूल उद्देश्य बदल देते  हैं ,
जो की जिंदादिली से जीना है, दूसरों के लिए कुछ करके जाना है,
ना की हर पल अपने स्वार्थ में भागते रहना | 

Monday, September 6, 2010

मैं बताता हूँ....मोहब्बत कितनी हसीन होती है ??

लोग मोहब्बत में खुदा देख लेते हैं ,
जीने मरने की कसमें बाँध लेते हैं,
हर पल हसीन हो जाता है 
किसी की नींद तो किसी का चैन खो जाता है |
कुछ के लिए ये जीवन का हसीन पल होता है ,
तो किसी के लिए शायराना खयाल होता है, 
किसी को जन्नत की सीढियां दिख जाती हैं,
तो किसी को ख़ुशी का आशियाँ मिल जाता है | 

मैंने भी यही उम्मीद की थी,
इश्क करने की एक भूल की थी |
इस मोहब्बत में, 
ना जाने कितने हसीन ख्वाबों को हकीकत का रूप देना था,
ना जाने कितने हसीन पलों को संजोना था |
न जाने कितनी कसमें हमने खायीं थी,
ना जाने कितने वादे हमें निभाने थे | 

लेकिन ना जाने.....
कहाँ गयी वो कसमें , कहाँ गए वो वादे ;
सब एक झटके में टूट गया,
मोहब्बत का आशियाँ एक पल में बिखर गया |
सारी कसमें झूठी सी हो गयीं ,
सारी यादें धुंधली सी हो गयीं |
सारे वादे-सारे बंधन सब टूट गए,
और हम अपने आंसुओं के साथ अकेले ही रह गए | 

मैं कहता हूँ....
उन कमबख्त शायरों को बुलाओ,
उन कमबख्त आशिकों को बुलाओ, 
मैं बताता हूँ....मोहब्बत कितनी हसीन होती है ?
उन हसीन पलों का क्या होता है,
उन ख्वाबों का क्या होता है ?
मैं बताता हूँ, एक पल में ये सब कैसे बिखर जाता है?
कैसे आदमी तन्हाँ हो जाता है ?

कैसे आदमी तन्हाँ हो जाता है ?

Thursday, September 2, 2010

इसी मोहब्बत की आग में हम जल मिटे.....

हमारी मोहब्बत को आप समझ न सके, 
हमारी मोहब्बत में आप तड़प न सके ,
हमारे ज़ज्बातों को आप दरकिनार कर, 
बड़ी बेदर्दी से हँसते ही रहे...... (2) | 

इसे आपकी मासूमियत कहूं, या आपकी बेरुखी, ...... (2) 
इसे अपना दीवानापन कहूं  या सच्ची दिल्लगी;
जो भी कहूं, सच तो ये है ..... (2)
बेवफाई का ये कड़वा घूँट हमें पीना ही पड़ा..... (2)
न चाह कर भी आपकी गलियों से मुहं मोड़ना ही पड़ा | 

दुःख तो यह है.......... (2)
कितनी कोशिशों, कितनी मिन्नतों के बाद भी,
दिल में आपके मोहब्बत की आग हम लगा न सके |
खुदा कसम..... लेकिन , 
इसी मोहब्बत की आग में हम जल मिटे,
इसी मोहब्बत की आग में हम जल मिटे |

Monday, August 16, 2010

कब तक......

प्रजातंत्र चल रहा है, चलता रहेगा |
हम चल रहे हैं, चलते रहेंगे |
देश का विकास भी हो ही रहा है,
और उम्मीद है, यह होते भी  रहेगा |

किन्तु प्रश्न यह है कि,
कब तक, आखिर कब तक 
सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा ?

कब तक, यह काम चलाने की प्रवृत्ति चलती रहेगी,
कब तक, यह जुगाड़ भिड़ाने की प्रवृत्ति चलती रहेगी,
कब तक आकाओं की जी-हुजूरी हमसे होती रहेगी,
कब तक, आखिर कब तक,  हमारी चुप्पी ऐसे ही बनी रहेगी |
कब तक सियासत के चंद धूर्त खिलाडी, हमें मोहरों जैसे पीटते रहेंगे,
कब तक और आखिर कब  तक ............
हम खून का यह कड़वा घूंट पीकर भी सब कुछ सहते रहेंगे |

मैं बस इस कब तक का उत्तर जानना चाहता हूँ ...बस इस कब तक का.....

क्यूंकि जिस दिन इस कब तक का हमें उत्तर मिल गया,
उस दिन यूँ समझिए हमारी सारी समस्यों का हल निकल गया |
उस दिन हमारे आकाओं की जडें हिल जायेंगी ,
उस दिन शतरंज के सारे खेल बिगड़ जायेंगे 
और हम जैसों के कुछ शब्द बच जायेंगे.....
और हम जैसों के कुछ शब्द बच जायेंगे |

Tuesday, June 8, 2010

आवश्यकता तो बस एक छोटी सी शुरुआत की है...

कहानी अपने आप में बड़ी दिलचस्प होती है| कभी इसमें भावनाएं तो कभी कल्पनाएँ तो कभी अनुभव झलकता है | यह कहानी भी कुछ ऐसी ही है, बल्कि मैं तो यह कहूँगा इसमें तीनों का सम्मिश्रण है | किन्तु जिस प्रकार किसी भी कहानी पर लेखक के अनुभव का सबसे ज्यादा असर पड़ता है इस कहानी पर भी कुछ ऐसा ही है |
मैं अपनी ट्रेन के इंतज़ार में प्लेटफ़ॉर्म पर बैठा था | इतेज़ार करना शायद ही किसी को पसंद हो, मुझे तो बिलकुल नहीं | जब मैंने आजतक किसी लड़की का इंतज़ार नहीं किया तो किसी और का इंतज़ार करना कितना दुखदायी हो सकता है, इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं | लेकिन मेरी एक  बुरी आदत भी है और वो है समय से काफी पहले स्टेशन पहुँच जाना | हांलांकि भारतीय रेलवे, भारतीय सरकारी कर्मचारियों की तरह है किन्तु पता नहीं कब किसी कर्मचारी का मूड बिगड़ जाए और फिर लेट आने की वजह से आपका काम न हो | इसी डर से मैं हमेशा समय से पहले पहुँच जाता हूँ | लेकिन मैं जिस अपवाद से इतने दिनों से डरा हुआ हूँ आज उसकी गुंजाईश नहीं है और ट्रेन पहले ही विलम्ब हो चुकी है | और मैं हर बार की भांति बेंच पर बैठा समाचार पत्र में व्यस्त था |

"आशु भैया, कैसे हैं?"
मैंने पेपर से सिर उठाकर देखा तो एक लड़का मेरे सामने मुस्कराते हुए खड़ा है |
"आप फिर कभी इंस्टिट्यूट नहीं आये| काफी बिजी हो गए होंगे जॉब मिलने के बाद| कन्वोकेशन पर भी आप नहीं आये थे |"
मुझे चेहरा जाना पहचाना तो लगा किन्तु मैं नहीं समझ पा रहा था की ये कौन है | और इसे कैसे मालूम कि मैं कन्वोकेशन में नहीं गया था | कोई बैचमेट तो नहीं लगता न ही जूनियर| 
मेरी परेशानी और आश्चर्य भरे चेहरे को लगता है उसने पहचान लिया और बोल पड़ा -" अरे आपने पहचाना नहीं, मैं सुब्रो, वो कैंटीन वाला | याद आया ?? " 
ओह, अरे ये तो सुब्रो है, मैं इसे कैसे भूल सकता हूँ| इसके हाथ कि चाय और मैगी खा-खा कर तो  मैंने  IIT में पांच साल गुजारे हैं|
"अरे सुब्रो तुम, कैसे हो और यहाँ क्या कर रहे हो ? यार मुझे उम्मीद नहीं थी कि तुम्हें यहाँ देखूंगा |"
"मैं ठीक हूँ और आप  कैसे हैं?"
"यार मैं भी मस्त हूँ | जिंदगी सही से चल रही है और अब थोड़ी स्थिरता आ गयी है | और तुम्हारे कैंटीन का काम कैसा चल रहा है ?"
"मैंने वो कैंटीन तो पहले ही छोड़ दी थी| अब मैंने एक रेस्टोरेंट खोल लिया है |आपके संस्थान छोड़ने के बाद काफी कुछ बदल गया है|"
"अरे ये तो बड़ी अच्छी बात है | और क्या चल रहा है लाइफ में? "
"बाकी सब बढ़िया है| मैंने भी 12th पास कर लिया है | आपने थोडा-थोडा पढ़कर पढने कि इच्छा जागृत कर दी थी| तो फिर उसके बाद मैंने भी धीरे धीरे करके 10th और12th कर लिया | फिर कुछ दिनों काम करके थोड़े पैसे बचा लिए और फिर एक ढाबा खोला था| धीरे-धीरे पूरा एक रेस्टोरेंट बना लिया है| अब तो आर्थिक स्थिति भी थोड़ी अच्छी हो गयी है|"
"अरे ये तो बड़ी अच्छी बात है| काफी ख़ुशी हुई जानकार की तुमने इतनी तरक्की कर ली है|"
"अरे ये सब आपकी देन है| अगर आपने मुझे पढाया न होता तो मैं अभी भी उसी कैंटीन पर होता| इसीलिए मैं भी शाम में पढाता  हूँ और मैं तो अपने गाँव में एक स्कूल खोलने जा रहा हूँ | लोगों से मांगकर और कुछ अपना मिलाकर पैसा हो गया है | अगले महीने ही उसका उद्घाटन है|"
"अरे ये तो और भी अच्छी बात है | चलो कम से कम तुम और लोगों के लिए भी सोच रहे हो|"
"अरे जब आपने मेरे लए सोचा था तो मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है, कुछ करू | अच्छा भैया, मेरी ट्रेन आ गयी है और यहाँ स्टोपेज भी कम ही है| आप मुझे अपना नम्बर दे दीजिये, मैं आपको कॉल करूँगा| और कभी वापस आइये खड़गपुर |"

मैंने उसे अपना नम्बर दे दिया और वो विदा लेकर चला गया | मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आ गए | एक दिन ऐसे ही खेल खेल में आकर मैंने कैंटीन के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया था |  सही कहूं, मैं तो कभी इसको लेकर गंभीर नहीं था|  मैंने तो ऐसे ही इन लोगों को पढ़ाना शुरू किया था | फिर धीरे धीरे मेरी भी रूचि बन गयी| धीरे-धीरे सब तो छोड़कर चले गए, पर सुब्रो आता रहा | जिस दिन मैं संस्थान छोड़ रहा था, मुझे याद है, उस दिन सुब्रो ने कहा था "आपने मुझे पढाया है और अब मुझे पढने में मजा आता है | मैं आगे पढूंगा| "| मैंने उसको अपना पता लिखकर दिया था और कहा था कि जब भी कोई जरूरत हो तो लिखना | लेकिन उसने कभी लिखा नहीं| शायद स्वाभिमान की  वजह से कभी उसने ना कहा | और फिर मैं भी व्यस्त हो गया और भूल गया कि सुब्रो नाम का चरित्र मेरी जिंदगी में कभी कोई था| और आज अचानक उसे ऐसा देखकर इतनी ख़ुशी हो रही है कि जैसे उसकी सफलता मेरी सफलता है|

हम हमेशा संसाधनों और समस्याओं को दोष देते हैं और कभी किसी के लिए कुछ नहीं करते | मेरा एक छोटा सा अगंभीर सा प्रयास अगर किसी के जीवन में इतना परिवर्तन ला सकता है तो अगर सब थोडा- थोडा करें तो ये पूरा समाज ही  परिवर्तित हो सकता है | सभी को घर बार छोड़कर समाझ सेवा के लिए निकलने की जरूरत नहीं है |  आवश्यकता तो बस एक छोटी सी शुरुआत की है |

अब तो बस जल्दी से छुट्टी लेकर खड़गपुर जाने का इंतज़ार है | सुब्रो की असल जिंदगी की कहानी सुनने....

Saturday, June 5, 2010

प्रत्यक्ष प्रमाण..

रेलयात्रा अपने आपमें बड़ी दिलचस्प होती है | प्लेटफ़ॉर्म से लेकर पूरी यात्रा तक आपका इतने सारे चरित्रों से पाला पड़ता है कि लगता है कि एक यात्रा में ही हमें न जाने कितने अनुभव हो गए | मुझे तो लगभग हर रेलयात्रा ने कुछ न कुछ सिखाया है | अनुभव कभी कडवे हुए हैं तो कभी मीठे | कभी समाज का डरावना रूप दिखा तो कभी ऐसा जिससे लगा कि अभी भी उम्मीद बाकी है | वैसे सच कहूं तो मुझे प्लेटफ़ॉर्म पर एक छोटा सा भारत दिख जाता है| 


वैसे तो कोई भी यात्रा अपने आसपास वालों से बात किये बिना पूरी नहीं होती किन्तु मेरी दिलचस्पी बीच-बीच में होने वाली परिचर्चाओं(Discussions) में है | इनमें बड़े ही अच्छे तर्क और तथ्य सामने आते हैं | इनमे आम आदमी की सोच झलकती है|  खैर मेरा यह अनुभव भी कुछ इसी प्रकार की एक परिचर्चा से जुडा है |


मैं अपनी खिड़की के पास वाली सीट पर बैठकर ओ. हेनरी द्वारा लिखी कहानियों का एक संकलन पढ़ रहा था | ओ. हेनरी और प्रेमचंद की कहानियों में मुझे बड़ी ही समानता नज़र आती हैं | हांलांकि दोनों के विषय और प्लॉट में काफी अंतर हैं किन्तु दोनों की ही कहानियों में समाज की  छुपी और दबी हुई चीजों का सटीक वर्णन होता है | सही में किसी भी समाज को समझने के लिए एक सूक्ष्म निगाह होनी चाहिए |


मैं अपनी इन्हीं सोच में मग्न था कि एक महिला मैगज़ीन में लेख पढने के बाद बोल पडी - "बताइए, देश का क्या होगा? ये नेता और नौकरशाह, सब देश को खोखला कर देंगे और ये प्रशासनिक अधिकारी तो सबसे भ्रष्ट हैं | ये तो सब के सब नेताओं के चमचे होते हैं और बस पैसा खाना इन्हें आता है | मैं तो अपने बेटे को कहूँगी, बेटा पढ़ लिखाकर यहाँ से निकल लो..जब ऐसे भ्रष्ट अधिकारी हैं तो देश का कुछ नहीं हो सकता |"

तभी एक सामने बैठे सज्जन बोले - "अरे इतनी भी निराशाजनक स्थिति नहीं है और सब के सब अधिकारी भ्रष्ट नहीं है | अगर ऐसा होता तो ये देश चल नहीं रहा होता | पिछले साठ सालों में हमने तरक्की भी की है और अगर सब के सब भ्रष्ट होते तो ये प्रजातंत्र जिसमे आप खुल्लम खुला ये सब बोल पा रही है, आज चल न रहा होता |"

"अरे आप बहुत आशावादी हैं, लगता है आपने कभी समाचार पत्र नहीं पढ़ा| हर दिन तो ऐसी खबरों से समाचार भरे होते हैं | जहाँ देखिये, तहां भ्रष्टाचार हिंसा ही तो है | अगर ये लोग इतने ही कुशल हैं तो ये कुछ रोकने का उपाय कुछ नहीं करते |"

"मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि समस्याएं नहीं हैं, किन्तु सब के सब भ्रष्ट हैं, यह आरोप गलत है | और मीडिया का क्या कहना, उन्हें तो अच्छी खबरों में दिलचस्पी ही नहीं | ये तो डर और गन्दगी बेचते हैं | और अगर यह सिस्टम ख़राब है ही तो हमें इसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए | यह सिस्टम हम लोगों से ही मिलकर बनता है | "

"लगता है कि आपका इस सिस्टम से पाला नहीं पड़ा | आप कभी इस सिस्टम में कोई काम करके देखिये, तब तो पता चलेगा कि कितने अच्छे हैं और कितने बुरे | इससे दूर रहना ही अच्छा है | अगर इसके चक्कर में फंसे तो भविष्य चौपट हो जायेगा | "


तभी अगला स्टेशन आ गया और इस बहस पर चढ़ती भीड़ ने रोक दिया | अचानक से कोच में एक 15-20 चढ़े | उसमे आधे वर्दी वाले थे | उसमे से एक ने सामान रखकर बोला "सर, सीट इधर है |" एक सज्जन आये और मेरी एकदम सामने वाली सीट पर बैठ गए | तभी एक इंस्पेक्टर टाइप के दीखते हुए आदमी ने टीटी से कहा "ये यहाँ के DM साहब हैं| जरा आराम से ले जाइएगा |" तब ये सब ताम-झाम समझ में आया | खैर ये सब भी ख़त्म हुआ और ट्रेन आगे चली | मुझे इस प्रकार के ताम झाम से सदैव गुस्सा आया है और यहाँ तो ये सब सार्वजानिक धन के दुरुपयोग पर हो रहा था | मुझे उस महिला की बात सच ही लगी |


तभी DM साहब ने सामने वाले सज्जन को देखकर बोला .." आर यू रमन? 1999 बैच? "
" एस, आइ एम् | बात क्या है ?"
"अरे यार तुने पहचाना नहीं | मैं अनुराग | कैसे हो तुम? ट्रेनिंग के बाद तो तुमसे टच ही न रहा | मैंने सुना तुम नालंदा में पोस्टेड थे |
"अनुराग, तू यार...तू तो बड़ा बदल गया है| मैं ठीक हूँ | सब सही चल रहा है | अरे यार काम के चक्कर में बहुत काम लोगों से संपर्क ना रहा | फिर तुम तो UP कैडर में भी थे | तुम्हें भी तो डिस्ट्रिक्ट पोस्टिंग मिल गयी होगी |"
"हाँ, मैं गोरखपुर में पोस्टेड हूँ आजकल | यार तुम्हें तो हमसे पहले मिली थी | अपने IAS बैच के टॉपर थे| और तो और तुम्हारी इमानदारी के किस्से इधर भी काफी मशहूर हैं | वैसे तुम AC-3 में क्या कर रहे हो ?मुझे तो अचानक से जाना पड़ रहा है, बस इस ट्रेन में ही जगह मिली और इसमें AC-I लगते नहीं हैं |"
"यार मैं तो इसी में चलता हूँ |पुरानी आदत जो ठहरी |"

यह सुनते ही सबका मुहं खुला का खुला रह गया | वो महिला जो कुछ देर पहले रमन साहब से बहस कह रही थी, आश्चर्यचकित सा होकर उन्हें देख रही थी | मैं सोच रहा था, अभी जो कुछ भी कहा जा रहा था, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण दिख गया | ऐसा कितनी बार होता है जब किसी बहस के दोनों पहलुओं के जीत जागते उदाहरण हमारे सामने मौजूद होते हैं और एक वक्ता स्वयं एक उदाहरण होता है | यह सोचते - सोचते मैं फिर मशगूल हो गया अपनी किताब में...ओ हेनरी द्वारा वर्णित समाज में |

Friday, June 4, 2010

किताबें भी जिंदगी के अनुभवों से ही लिखी जाती हैं...

मुझे याद नहीं ये किसके शब्द हैं, लेकिन बचपन में मैंने किसी को कहते सुना था- "किसी परिचर्चा या बहस में भाग लेने वालों से ज्यादा वो सीखते हैं जो उन्हें सुनते हैं|" बचपन की कई सारी सीखें मैं अब भूल चूका हूँ किन्तु पता नहीं क्यूँ  यह आजतक नहीं भूल पाया | खैर जो भी हो किन्तु मेरी इस आदत से मुझे सदा फ़ायदा ही हुआ है और कई बार तो इसी आदत ने मुझे बोलने और लिखने के कई विषय दिए हैं | 
हालाँकि मेरी रेलयात्रा अक्सरहा किताबों के साथ ही गुजरती है किन्तु कभी-कभी लोगों के बीच होने वाली तरह-तरह की बहसों से भी काफी समय निकल जाता है | इस बार की गर्मी की छुट्टियों में जब घर जा रहा था तो मेरे आसपास वाली सीट पर कुछ हमउम्र थे और कुछ बड़े थे | मैं यह देखकर खुश हुआ कि चलो आसपास बच्चों के साथ कोई परिवार नहीं है, नहीं तो पूरी यात्रा या तो उनकी शैतानियों से या फिर उनकी चिल्लाहटों से ही बीतती | हांलांकि इस बार भी आसपास किसी लड़की को ना पाकर थोड़ी निराशा तो हुई, किन्तु अब इस निराशा कि तो अब आदत हो चुकी है और वैसे भी हम भारतीय लड़कों का भाग्य इस विषय पर कहाँ साथ ही देता है ? 
खैर जो भी, कुछ समय के बाद ही जब परिचय का दौर गुजर गया तो मुझे लगा गया कि अब परिचर्चाओं का समय हो गया है, बस किसी विषय के मिलने की देर है | इस कमी को भी पेपर में छपी एक खबर ने पूरी कर दी और अचानक से एक वृद्ध सज्जन बोल पड़े-" आज की पीढ़ी में भी न तो संस्कार है, न नैतिकता है और ना ही सफलता के लिए धैर्य | सबको सब कुछ जल्दी जल्दी ही चाहिए |  कहाँ हमें पहले से कुछ ना मिला फिर भी हमने धैर्य न खोया, कभी जल्दबाजी नहीं की, कभी कोई शॉर्ट-कट नहीं लिया | एक एक तिनका जोड़कर सब बनाया और ये हैं कि इन्हें तो सब कुछ एक क्षण में ही चाहिए | "
तभी सामने से आवाज़ आई "अंकल समस्या हमारी जल्दबाजी में नहीं आपके देखने के नज़रिए में है | आजकल की दुनिया पहले के समय से काफी फास्ट हो गयी है | अगर आज दौड़ेंगे नहीं तो पीछे रह जायेंगे | आज कोई कुछ आपको देता नहीं है, आपको छीन के लेना पड़ता है |  आज केवल योग्यतम की उत्तरजीविता(Survival Of Fittest) का सिद्धांत चलता है | और सफलता के लिए सब कुछ जायज़ है नहीं तो आप पिछे  रह जायेंगे | ये नैतिकता, धैर्य..सब किताबी बातें हैं | असल जीवन में ये नहीं चलता |"
कोने में बैठे एक सज्जन काफी देर से यह सब सुन रहे थे | अभी तक तो उन्होंने एक भी शब्द न बोला था, बल्कि उनकी प्रतिक्रियाओं से ऐसा लग रहा था जैसे इस बहस से वो बोर हो चुके थे, शायद यह विषय ही काफी पुराना हो चूका था |  फिर भी काफी देर चुप रहने के बाद अचानक वो बोल पड़े -"  शायद तुम सही बोल रहे हो| हमारे नज़रिए में ही कोई खोट है और ये सब किताबी बातें हैं या तुम्हें किताबी लगती हैं | किन्तु एक बात कहना चाहूँगा किताबें आसमान से नहीं टपकती | उनकी प्रेरणा इस दुनिया से मिलती है | किताबें भी जिंदगी के अनुभवों से ही लिखी जाती हैं|"

सब निरुत्तर सा उस सज्जन का मुहं देखने लगे | 

Thursday, June 3, 2010

राजनीति निरपेक्ष नहीं, समाज का ही एक रूप है....

राजनीति को गाली देने वालों से मैं कुछ कहना चाहता हूँ,
उनसे सत्य के धरातल पर एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ |

आप कहते हैं,
इस तंत्र से आपको आस नहीं, 
किसी पर भी आपको विश्वास नहीं |
सर्वत्र हो रहा भ्रष्टाचार का विकास है, 
आम आदमी हर वक़्त निराश है|
अब अपराधी और अभिनेता राजनेता बनते हैं, 
अपनी नौटंकियों से संसद को त्रस्त करते हैं |
हर जगह किसी न किसी प्रकार का उग्रवाद है, 
रक्षा हेतु  हमें पुलिस पर न  विश्वास है |
न्याय मिलने में देरी है होती, 
पैसे की वजह से गरीबों को वो भी नहीं मिलती |
जाति और आरक्षण ने संस्थाओं को खोखला कर रखा है, 
सामाजिक न्याय मिलने में फिर भी इतना देर हो रखा है |
आर्थिक स्तर पर तरक्की तो होते जा रही ,
पर गरीबों और अमीरों के बीच की खाई बढ़ते ही जा रही |
विश्व स्तर पर आतंकवाद, घर में उग्रवाद से जनता पीड़ित है,
सामाजिक चेतना की नहीं किसी को अनुभूति है |
चारों तरफ ऐसी स्थिति देखकर हर कोई निराश है,
सबके मन में डर है भय है गुस्सा है, पर नहीं कोई उपाय है |

मैं आपसे असहमत नहीं हूँ ,
स्थिति वाकई में ख़राब है, गरीबों का जीना हराम है |
इस तरीके से देश में विकास, हो नहीं सकता,
समस्याओं को सुलझाया, कदापि जा नहीं सकता |
पर मेरा आपसे एक प्रश्न है,
इन सबके लिए जिम्मेदार कौन है ?

हम सब ने अपनी दुनिया को सीमित है कर लिया,
समाचार पत्रों में है देश को समेट लिया |
किसी दुर्घटना पर संवेदना के दो शब्द बोल देते हैं,
इतने से ही कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते  हैं |
भ्रष्टाचार को सामने गाली तो देते हैं ,
पर पीठ पीछे सारे कुकृत्य हम करते ही रहते हैं |
अपना स्वार्थ जब सामने आ जाता है,
तो नैतिकता और दूसरों का हित बेकार हो जाता है |
पढ़े लिखों के लिए राजनीति से दूर रहने में ही भलाई है,
कमरे में समाचार पर इसका विश्लेषण करना ही उनकी अच्छाई है |

तो प्रश्न यह है,
फिर हम शिकायत क्यूँ करते हैं,
हर समस्या हेतु राजनीति और तंत्र को दोष क्यूँ देते हैं ?
तंत्र हमसे अलग नहीं है, वो हमारा ही प्रतिरूप है,
राजनीति निरपेक्ष नहीं, समाज का ही एक रूप है |

Sunday, May 30, 2010

कविताओं में भी एक दुनिया होती है...

कविताओं में भी एक दुनिया होती है...
कविता कभी कवि की कल्पना होती है,
तो कभी यह विचारों का प्रवाह होती है |
कभी यह लोगों को व्यंग्य से हंसाती है,
तो कभी लोगों को वास्तविकता से रुलाती है |
कभी यह पुष्प की अभिलाषा होती है,
और समाज में चेतना फैलाती है ;
तो कभी चक्रधर की गलियां होती हैं,
और इस समाज पर कटाक्ष कर जाती हैं |
कभी हमारी भावनाएं कहीं खो सी जाती हैं ,
और ये उनका पुनः एहसास कराती हैं |
तो कभी गुलज़ार के शब्दों में मकाँ की उपरी मंजिल के माध्यम से,
ये सब कुछ कह जाती हैं |
कविताओं में भी एक दुनिया होती है|
कविताओं में भी एक दुनिया होती है|

कभी लोगों के अनुभव तो कभी उनकी कल्पनाएं ,
तो कभी इनमे भावनाएं होती हैं|
कभी लोगों के अनछुए ख्वाब तो कभी जीवन का कोई हसीन पल,
तो कभी इनमे लोगों की दबी हुई इच्छाएं होती हैं;
कभी ये लोगों को अनंत आसमां में उड़ने की शक्ति प्रदान करती हैं,
तो कभी प्रेरणा तो कभी जीवन की भक्ति प्रदान करती हैं |
कविताओं में भी एक दुनिया होती है|
कविताओं में भी एक दुनिया होती है|

कविता, अगर पाठक के मन को भा जाए,
उन तक एक सन्देश पहुंचाए ,
उनके चेहरे पर मुस्कान लाये,
उनको थोडा प्रेरित कर जाए ,
तो कवि का लेखन सफल हो जाए , कवि का परिश्रम सफल हो जाए |
बस इतना समझ लीजिये, ऐसी ही कविता सफल होती है |
कविताओं में भी एक दुनिया होती है....कविताओं में भी एक दुनिया होती है....

Saturday, May 29, 2010

माँ, बस तुम जल्दी चली आओ.....

तुम्हीं मेरी प्रेरणा, तुम्ही मेरी कल्पना ;
तुम्हीं मेरी आशा, तुम्हीं मेरा विश्वास |
तुम मेरे जीवन में हो, तुम मेरे रग-रग में हो ;
तुम मेरे अस्तित्व का कारण हो, हर दर्द का निवारण हो ;
तुम मेरे जीवन की शक्ति हो , तुम्हीं मेरी भक्ति हो |

मैंने तुम्हें देखा नहीं है,
ना ही तुम्हारे मधुर शब्दों से मेरे कान गुंजित हुए हैं;
फिर भी पता नहीं क्यूँ ,
तुम्हारे स्पर्श की अनुभूति सी लगती है|
ऐसा लगता है,
तुम यहीं कहीं आसपास उपस्थित मुझे देख रही हो |

यहाँ सब कहते हैं,
मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई नहीं,
फिर भी पता नहीं क्यूँ , मुझे लगता है
तुम आओगी जरूर आओगी
आओगी और मुझे अपने सीने से लगा लोगी |
तब मैं अपनी सारी परेशानियाँ,
तुम्हारे गोद में सिर रखकर कह सकूँगा,
सबकुछ भुलाकर, तुम्हारी गोद में
चैन से सो सकूँगा |

यही आशा मुझे आधे पेट भी जिलाए रखे है ,
यही आशा मुझे इन निराशाओं में जिलाए रखे है |
मैं इन सारी परेशानियों को हँस कर सह लेता हूँ ,
क्यूंकि मुझे मालूम है, तुम्हारे आते ही ये सब ख़त्म हो जाएँगी |
और फिर मुझे अनाथ कहने वाले,
इन सब के मुँह पर चुप्पी का ताला लग जाएगा |

लेकिन हाँ माँ
मैं एक बात कहना चाहता हूँ ,
बस तुम जल्दी चले आओ |
मैं भूखे पेट तो रह सकता हूँ
लेकिन अब ये ताने सहे नहीं जाते|
यह अनाथ शब्द गाली सा लगता है,
मेरे धैर्य को खोखला सा कर जाता है |
माँ, अब ये सब सुना नहीं जाता, सहा नहीं जाता ;
मुझे कुछ और नहीं चाहिए;
बस तुम जल्दी चली आओ|
माँ, बस तुम जल्दी चली आओ......

Tuesday, May 25, 2010

प्रश्नों के साथ.. उत्तरों की तलाश में.....

जैसे जैसे उम्र ढलती जाती है ,
जीवन की समस्याएं हमें उलझाएं जाती हैं,
हमारे हर कर्तव्य तार्किक होते जाते हैं,
और हम.....हर वक़्त हम कुछ न कुछ खोते जाते हैं |

हम उस हर चीज को भुला देते हैं... जो हमारे बचपन से जुडी होती है;
हमारा अदम्य साहस, हमारी जिज्ञासा, हमारी निर्दोषता, हमारी निष्कपटता....
और सबसे महत्वपूर्ण... हमारी कल्पनाएँ....|
सब कहीं खो सी जाते हैं...
हम भूल जाते हैं,
हमारे जीवन के सबसे अच्छे दिन... हमारा बचपन...
इन कल्पनाओं के सहारे ही तो बीता है |
बचपन की उस अज्ञानता में.... हमारे कल्पनाओं की उड़ान असिमित थी,
हम अपनी कल्पनाओं में अपनी ही दुनिया बनाते थे... बिगाड़ते थे...
हमारे अपने सपने थे और उन्हें पाने की अपनी ही ललक थी|

किन्तु,
ज्ञान का दायरा बढ़ते ही....हम बड़े व्यवहारिक हो जाते हैं..
बचपन से जुडी हर चीज हमें अव्यवहारिक लगने लगती है....
हम भयभीत होने लगते हैं...
जीवन,सफलता...ना जाने कितनी ही चीजों के लिए...|

और कल्पनाओं को.....बचपना, बचपन की नादानी कह भुला देते हैं....
हम भूल जाते हैं.... इन कल्पनाओ में कितनी शक्ति है....
समस्याओं को हल करने की...आशा प्रदान करने की....
मन को एक नयी उड़ान देने की...कुछ नया कर गुजरने की...|

लेकिन ना.. हम सब भूल जाते हैं....
तार्किक बन जाते हैं....व्यवहारिक बन जाते हैं |

कभी-कभी तो लगता है...
हमारा ज्ञान ही सबसे बड़ा दुश्मन है... हमें दुखी रखने का सबसे बड़ा कारण हैं.....
लगता है इसी की वजह से हमारी कल्पनाएँ कहीं खो सी जाती हैं....
और हम इस तार्किक और व्यवहारिक दुनिया में खोये रहते हैं....
प्रश्नों के साथ.. उत्तरों की तलाश में.....|

Friday, May 14, 2010

खुद को तलाशते, अब बढ़ते ही जाना......

निकला अकेले हूँ इस सड़क पर,
नहीं कोई मंजिल नहीं कोई साथी,
तन्हाँ अकेले मुसाफिर यूँ बनकर,
अकेले चला जा रहा इस डगर पर |

घर को है छोड़ा, है रिश्तों को तोडा,
खुद को समझने अकेले ही निकला,
घुमक्कड़ बना अब जीवन है जीना,
न है अब रूकना ना ही है अब डरना |

न पाने की चाहत है, न खोने का डर,
भविष्य की न चिंता, न अतीत का डर,
किसी को ना दिखलाना, ना है अब समझाना,
खुद को तलाशते, अब बढ़ते ही जाना |

Tuesday, April 13, 2010

अब भागना है...

मैं जानता हूँ मुझे वापस यहीं आना है ,
इन्हीं बंद कमरों में , इन्हीं चारदिवारियो में बंद रहना है..
फिर भी मैं कुछ दिनों के लिए भागना चाहता हूँ,
इन सबसे दूर, इस भीड़, इस भागमभाग से....
केवल अपने लिए, अपने विचारों के लिए...
कुछ दिनों के ठहराव के लिए ......
अब भागना है, भले वो कुछ ही दिनों के लिए ही क्यूँ न हो.. ..

Thursday, April 1, 2010

दो बाल और


"एक चुटकी सिन्दूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू, ईश्वर का आशीर्वाद होता है.....एक चुटकी सिन्दूर, सुहागिन के सर का ताज होता है.....एक चुटकी सिन्दूर, हर औरत का ख्वाब होता है.... एक चुटकी सिन्दूर..... "

आप शीर्षक पढ़ कर सोच रहे होंगे कि यह क्या है? शायद आपको यह लगा होगा कि मिश्राजी (जो नहीं जानते यह जान ले की बचपन से ही मेरे अधिकांश मित्रों ने मुझे इसी नाम से संबोधित किया है) का दिमाग सठिया गया है या फिर खड़गपुर की इस बेहाल गर्मी ने इन्हें पागल कर दिया है| किन्तु मैं आपको आश्वासन देता हूँ मेरे इस लेख को लिखने के पीछे इनमे से कोई भी कारण सत्य नहीं है तथा यह मैं अपने पुरे होश-हवाश में रहते हुए लिख रहा हूँ | आप भी मेरी भावनाओं को समझ जाइएगा किन्तु वर्तमान के लिए आप इस शीर्षक को एवं मुझे बर्दाश्त कीजिये तथा इस लेख को पढना जारी रखिये |
हुआ यूं कि इस बार शंकरपुर (जिससे सम्बंधित छायाचित्र आप मेरे फेसबूक अकाउंट पर देख सकते हैं) की ट्रीट पर हुई एक छोटे से एक्स्टेम्पोर प्रतियोगिता ने मुझे इसे लिखने हेतु प्रोत्साहित किया तथा इस बार भी समस्त आवाज़ टीम की हौसलाहाफजाई के लिए मैं उनका धन्यवाद् करता हूँ | जैसा कि मैंने आपको बताया है- मेरे अधिकांश मित्र मुझे मिश्राजी कि नाम से संबोधित करते हैं किन्तु वर्त्तमान में मेरे गिरते बालों तथा सेकंड इयर में पुरे वर्ष टकला रहने कि वजह से लोग मुझे यदा-कदा टकला शब्द से भी संबोधित करते हैं | अब इस महान कार्य में आवाज़ टीम कहां पीछे रहने वाली थी तो एक्स्टेम्पोर प्रतियोगिता में मुझे जो विषय दिया गया, वह था "दो बाल और" |
अब आप ही बताइए, इन दो बालों की कीमत हम जैसों से अच्छा कौन समझ सकता है| हम जैसे, जिनके सिरों पर बाल कुछ दिनों के लिए ही बचे हैं, वे ही समझ सकते हैं कि ये दो बाल इस दुनिया में कितनी अहमियत रखते हैं| जब भी शैम्पू करते वक़्त दो बाल गिर जाते हैं तो मुझे कितना कष्ट होता यह तो मैं ही जनता हूँ और मेरे मुंह से अनायास ही निकल जाता है "दो बाल और" | ये वही दो बाल हैं जो मुझे, आपको गंजा बनने से रोक सकते हैं | किन्तु औरों को यह कौन बताये कि ये "दो बाल और" मुझे कितना कष्ट प्रदान करता है | इस विषय पर मुझे ॐ-शांति-ॐ फिल्म का "एक चुटकी सिंदूर" वाला डायलौग याद आता है | हमारी-आपकी सबकी फेवरेट अभिनेत्री "दीपिका पादुकोण" ने जब यह कहा था तो थियेटर कई लोग हँसे थे, कई लोग रोये थे तथा कुछ महिलाएं तो इतनी गंभीरता से रो रही थी कि मानो वह अन्याय उन्हीं के साथ हो रहा हो | खैर जो भी हो अहम् बात यह है कम से कम कोई तो था जो उन सारी हंसी-ठहाको के पीछे उस परदे की अभिनेत्री के दर्द को समझ रहा था (विशेषतः वहां मौजूद वे महिलाएं) | किन्तु विडम्बना देखिये मेरे "दो बाल और" के पीछे छुपे दर्द को किसी ने नहीं समझा और सब के सब हँसते रहे | लेकिन अब कर भी क्या सकते हैं,ये दुनिया बड़ी जालिम है |
किन्तु मैं कहना चाहूँगा कि खैर जो भी हो, मेरे अन्दर अभी भी उम्मीद बाकी है कि वे दो बाल आयेंगे और जरूर आयेंगे क्यूंकि उसी फिल्म में एक और डायलौग था....

"इतनी शिद्दत से मैंने तुम्हें पाने की कोशिश की है कि हर जर्रे ने मुझे तुमसे मिलाने कि साजिश की है, कहते हैं.... अगर किसी चीज को दिल से चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है...... हमारी फिल्मों की तरह एंड में सब ठीक हो जाता है.... और अगर ठीक न हो तो वो दी एंड नहीं है दोस्तों.... पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त... अभी दो बाल आने बाकी है मेरे दोस्त "

Tuesday, March 23, 2010

कुछ लिखने की इच्छा हो रही है, किन्तु पता नहीं क्या लिखा जाए?


कुछ लिखने की इच्छा हो रही है, किन्तु पता नहीं क्या लिखा जाए? मुझे जरा सा भी अनुमान नहीं है कि मैं क्या लिखना चाहता हूँ और मैं क्या लिखूंगा | फिर भी मैं लिखने बैठ गया | और अब प्रश्न है कि क्या लिखा जाए और कैसे लिखा जाए?

लेकिन अगर गौर किया जाए इन प्रश्नों से पहले एक मूल प्रश्न यह है कि मैं लिखने बैठा ही क्यूँ ? जब कोई विषय ही नहीं, कोई योजना ही नहीं तो मैं बैठा ही क्यूँ ? बिना किसी तैयारी कि जंगे-मैंदान में उतरना क्या उचित है ? कहते हैं जंग जीतने के दो तरीके होते हैं-- पहला यह कि आप पूरी तैयारी और योजना के साथ मैदान में उतरे या फिर आप हौसले के साथ उतर जाए और फिर "जो होगा देखा जायेगा वाली भावना" ही आपको विजयी बनवाएगी | हालांकि लिखना जंग में उतरने जैसा तो नहीं है, फिर भी बिना किसी योजना के आज कि इस नियोजित (planned) दुनिया में कुछ भी करना शायद असंभव ही है | बच्चे के पैदा होने से पहले ही माँ-बाप उसके स्कूल का बंदोबस्त करते हैं, जरा सा बड़ा होते ही उसके कैरियर की योजना बन जाती है, फिर नौकरी की योजना और फिर तो जीवन स्वयं ही नियोजित हो जाता है | कभी-कभी तो लगता है कि लोगों के जीवन में से आश्चर्य (surprise element) ख़त्म होते जा रहा है | हर कोई एक सुनियोजित (well planned) जीवन जी रहा है | लोगों ने अपने मन, अपनी इच्छाओं को दबाकर जीना सीख लिया है | वह स्वच्छंद मनुष्य जो सबकुछ भुलाकर अपने लिए, अपने मन की आतंरिक ख़ुशी के लिए जीता था, लगता है कि विलुप्तप्राय प्राणी (endangered species) की श्रेणी में आ गया है | शायद आश्चर्य और उसके साथ जुडी अनिश्च्चित्ता में जो एक डर था, आनंद था, हम उसे भूल गए हैं | दूसरों के बनाये रास्ते, उनकी बनायी हुई उपलब्धियों के पीछे भागे जा रहे हैं ; भूलते जा रहे हैं कि हम क्या चाहते हैं, हमारा मन क्या चाहता है |

लेकिन गनीमत यह है कि मेरे लिखने के साथ ऐसा नहीं है | मैंने अपने लेखन को नियोजित नहीं किया है | मैं हर बार लिखने के पहले यह नहीं सोचता है कि क्या लिखना है कैसे लिखना है? जब भी मन किया शुरू हो गया और बस अपने मन से लिखते गया | जैसा भी लिखा, मुझे नहीं मालूम किन्तु मैं यह कह सकता हूँ कम से कम मैंने अपने मन से लिखा, जो मेरी भावनाएं थी उन्हीं ने शब्दों का रूप लिया और मुझे लगता है कि शायद यही लेखन है | मेरे हिसाब से आप कैसा लिखते हो, क्या लिखते हो, इन सब से कहीं ज्यादा यह महत्वपूर्ण है कि आप मन से लिखो | जब आप मन से लिखते हो तभी आप पाठकों तक पहुँच पाते हो और शायद यही सफल लेखकों की सफलता का राज है | किन्तु जो भी हो, बस आप लिखिए, मन से लिखिए | बहुत सारी योजनायें आपकी भावनाओं का क़त्ल कर देती हैं और फिर न तो लिखने में आनंद है न ही जीवन में | इस नियोजन (प्लानिंग) के बंधन से मुक्त होइए..... शायद तभी आप जीवन का सच्चा आनंद ले सकते हैं |

Saturday, March 20, 2010

हमने भी अब देख लिया है देश के कर्णधारों को...

हमने भी अब देख लिया है देश के कर्णधारों को,
पढ़े-लिखे अनपढो को, बुद्धिजीवियों के विचारों को |

हर जगह ये राग अलापते,
राजनीति विकृत है, तंत्र बिगड़ रहा है,
आम आदमी परेशानियों के बोझ से मर रहा है |
राजनीति को गन्दा दलदल कहना इनकी आदत है,
अपने को सफेदपोश बताकर,
जिम्मेदारियों से बचने में इनको महारत है |
इनके अनुसार,
ये सीधा साधा जीवन व्यतीत करते हैं,
ये हर प्रकार की राजनीति और भ्रष्टाचार से दूर रहते हैं,
ये विचारवान और विवेकशील प्राणी हैं,
ये असत्य के शत्रु और सत्य के पुजारी हैं|

किन्तु मैं तो कहता हूँ,
ये शुतुरमुर्ग हैं |
अपनी गलतफहमियो में मशगूल हैं, सच्चाई से कोसों दूर हैं |
बस सिर को रेत में घुसाकर उसी को सत्य मान लेते हैं,
अपने आसपास की गन्दगी देख ही नहीं पाते हैं |
देश की राजनीति को दिन भर गाली देने वाले इन बुद्धिजीवियों को,
अपने आस पास की राजनीति दिखती ही नहीं,
उसमे जो कूटनीति मचती है, वो दिखती ही नहीं |
जाति के नाम पर वोट पड़ना गलत है, महापाप है,
हॉल के नाम पर सबकुछ करना, हॉल धर्म है; जन कल्याण है |
इनके अनुसार जनता जागरूक नहीं हैं, देश में वोट ख़रीदे जाते हैं,
यहाँ पर इलेक्शन के दिन चिट पकडाए जाते हैं |
और फिर लोग परिवर्तन की बात करते हैं,
और मुलायम की जगह मायावती का समर्थन करते हैं |

और इसपर ये दावा करते हैं,
ये पढ़े लिखे लोग हैं,
बुद्धिजीवी हैं, देश के कर्णधार हैं |

Friday, January 8, 2010

बदलाव कहाँ आया है ?

आज निकले हैं दुनिया देखने,
कहते हैं कि ये बदल गयी है |
कहते हैं,
लोग बदल गए हैं, जीने का ढंग बदल गया है ;
शायद मैं ही नहीं बदला |
सब ने कहा,
अपने बंद पिंजरे से बाहर निकलो,
देखो कितना कुछ बदल गया है |
हर कोई तेजी से बदल रहा,
तुमसे आगे निकलता जा रहा |
तुम हो कि वहीँ के वहीँ,
पिंजरे में सड़ रहे हो,
बस लिख रहे हो,
और पता नहीं क्यूँ गा रहे हो |

अंतत: मैं निकल ही पड़ा,
इस बदली दुनिया को देखने;
अपने पिछड़ेपन को पहचानने,
लोगों कि तरक्की का राज जानने |
लेकिन क्या कहूं, क्या लिखूं....
मुझे तो बदलाव नज़र ही नहीं आता |
माँ की दुलार, पापा की डांट....अभी भी वही है,
दीदी के राखी का प्यार अभी भी वही है,
दादी की गोद में सिर रखकर गाँव भर की कहानिया सुनना,
ये तो नहीं बदला;
दादा जी के साथ खेत-खेत घूमना, ये तो नहीं बदला |
अभी भी भूखे नंगे हर जगह दिख जाते हैं ,
दो जून की रोटी के लिए खून जलाते मिल जाते हैं |
रेलगाडियों में भिखारियों की संख्या तो कम नहीं हुई,
अभी भी खेलने वाले हाथ, पानी की बोतलों और झाडू के साथ दिख जाते हैं |

तो फिर बदला क्या है ?
शायद हाँ,
बुढ़ापे में माँ-बाप का हाथ छोड़ देना बदला है,
बाहर निकल कर घर वालों को पिछड़ा कहना बदला है,
हर जगह नैतिकता का चीर हरण करना बदला है,
बड़ों की हर तर्क को जनरेशन गैप कह देना बदला है |

लगता है लोगों ने इन्हीं को ही बदलाव मान लिया,
भौतिक परिवर्तनों को ही बदलाव मान लिया,
कच्ची पगडंडियों की जगह पक्की सडकों को ही तरक्की मान ली |
लेकिन हम भूल क्यूं जाते हैं,
ये तो अवश्यम्भावी हैं;
हम भूल क्यूं जाते हैं कि,
गुफा से महलों तक का सफ़र भी हमने तय किया है,
बंदरों कि चिं-चिं से भाषा और सभ्यता भी हमने बनायी है |
तो इस जरा से परिवर्तन को हम प्रगति और क्रन्तिकारी बदलाव मान लेते हैं?
वसुधैव कुटुम्बकम का नारा देने वालों कि सोच इतनी छोटी कैसे हो सकती है ?

मैं तो कहता हूँ, बदलाव कहाँ आया है ?
बदलाव तो तब आएगा, जब न भूखे रहेंगे न नंगे रहेंगे,
जब पढने-खेलने वाले हाथों में झाडू और कटोरा नहीं दिखेंगे,
जब भौतिकवादिता के साथ नैतिकता कदम मिलाकर चलेगी,
और हम माता-पिता के पैर छूकर मंगल पर कदम रखेंगे....