Sunday, November 29, 2009

परिभाषायें......

परिभाषायें....हम सभी जानते हैं की परिभाषायें काफी महत्वपूर्ण होती हैं| परिभाषायें ही यह परिभाषित करती हैं की हम संसार को किस नजरिये से देखेंगे| कभी आपने सोचा है कि गिलहरी का यह नाम कैसे पड़ा या फिर गिलहरी शब्द को उस छोटे से जीव की काया द्वारा क्यूँ परिभाषित किया गया? मैनें कई बार उस छोटे जीव से सबंधित इस बड़े प्रश्न पर अपने भगवान् प्रदत्त इस छोटे से मस्तिष्क से विचार किया है| मुझे उत्तर तो नहीं मिला पर मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य यह होता है कि यदि वर्तमान गिलहरी को शेर और वर्तमान शेर को गिलहरी शब्द से परिभाषित किया जाता तो क्या होता?.....तब जंगल का राजा/रानी शेर नहीं, गिलहरी होता या होती और बन्दे अपनी बंदियों द्वारा "मेरी गिलहरी" पुकारे जाने पर प्रसन्न हो जाते| और तो और "फाइव पॉइंट समवन" नेहा हरी को "my tiger..come on" नहीं, शायद "मेरी गिलहरी...come on" पुकारती| कहने का तात्पर्य है कि शब्द नहीं, उसकी परिभाषा कि महानता होती है|

किन्तु परिभाषायें भी समय और स्थान के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं| कहा जाता है कि वक़्त और मौके की नजाकत को देखकर जो अपनी परिभाषायें नहीं बदलता, इस कलियुग में उसका भला तो भगवान् भी नहीं कर सकते| वैसे इस तथ्य को हम KGPians से ज्यादा अच्छे से भला कौन समझ सकता है क्योंकि प्रथम वर्ष से ही हमारी परिभाषायें बदलना शुरू हो जाती हैं| हांलाकि मैं सारी परिवर्तित परिभाषाओं को तो एक लेख में सम्मिलित नहीं कर सकता, फिर कुछ तथ्यों के ऊपर यह नाचीज लिखने का प्रयास कर रहा है|

सबसे पहली परिभाषा जो यहाँ आते ही परिवर्तित होती है वह होती है IITians की| यहाँ आने के पहले वे तो हमारे लिए पढाई के देवदूत होते हैं और जब हम उनकी जमात में शामिल होते हैं, तब मालूम चलता है कि हकीकत क्या है? ये बाहर के शेर अन्दर किस प्रकार से प्रोफ़ेसर के सामने भीगी बिल्ली की तरह लाचार होते हैं| जैसे ही एक सेमेस्टर निकलता है, हमारी पढाई एवं अच्छे मार्क्स की परिभाषा बदल जाती हैं एवं उसमें सापेक्षता का सिद्धांत का प्रयुक्त होने लगता है| और पहले सेमेस्टर के मध्य में जो हमारे मन में नारी जाति के प्रति शत्रुता भरी परिभाषा उत्पन्न होती है, उसके बारे में कुछ भी कहना अनावश्यक है क्योंकि हम सभी जानते हैं कि हम बुद्धिजीवियों की देर रात तक चलने वाली तथाकथित परिचर्चायों में क्या होता है| कहने का तात्पर्य है की प्रवेश के कुछ ही दिनों में हमारी कई महत्वपूर्ण परिभाषाएं बदल जाती हैं| फिर बाद के दिनों में हमारे अन्दर और भी परिवर्तन आने लगते हैं| DC से परिचय होने के बाद हमारी मनोरंजन की परिभाषा भी बदल ही जाती है| अपने आसपास के लोगों को देखकर peace मारने की परिभाषा का परिवर्तन कई लोगों के लिए हानिकारक साबित हो जाता है|

सबसे महत्वपूर्ण और बड़े परिवर्तन तो हमारे द्वितीय में वर्ष में आते हैं| हमारे शब्दकोश में OP हॉल टेम्पो जैसे नए शब्दों की परिभाषा जुड़ जाती है किन्तु अब तो संस्थान प्रशासन भी इन शब्दों से प्रथम वर्ष में ही अवगत करने की कोशिश कर रहा है| तृतीय वर्ष सही मायने में पहली बार हमारे जोश को दिखाता है जब हम FT के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते हैं| इसकी परिभाषा भी अलग हो होती है, बाहर की दुनिया के लियी ये कुछ सिखने का मौका है और हमारे लिए तो ये विदेश भ्रमण का जरिया है| चतुर्थ वर्ष में BTP की परिभाषा भी हमारे लिए कम रोमांचक नहीं है और साल भर चलने वाले प्रोजेक्ट को कुछ दिनों में हम कैसे पूरा करते हैं ये हमसे बढियां कौन जनता है ?
और हाँ सारी दुनिया जो हमें समझती है अर्थात geek उसकी परिभाषा भी यहाँ काफी अलग है| सारे संसार के लिए geek वह है जो अपना सारा समय कंप्यूटर और इन्टरनेट पर व्यतीत करता है किन्तु समस्या यह है कि यहाँ पर तो सब वही करते हैं| अतः हमने अपने क्ग्प धर्म का पालन करते हुए इसकी भी एक अलग परिभाषा निकाली और हमारे लिए geek वह है जो LINUX का प्रयोग करता है और जिसकी coding में रूचि होती है|

वैसे इस लेख में जो कुछ भी लिखा गया है, वे केवल कुछ झलकियाँ हैं कि किस प्रकार परिभाषाएं यहाँ बदल जाती हैं| अभी और भी कई तथ्य हैं जिनके बारे में लिखा जा सकता है और लिखा जाए तो एक खरगपुर पुराण तो आसानी से पूर्ण हो जायेगा| खैर अभी मेरा मन खरगपुर पुराण लिखने का नहीं है,तो अभी के लिए इतना ही| किन्तु हाँ अंत में मैं बस इतना कहूँगा कि, ये परिभाषाएं केवल और केवल KGP में और KGP की जनता के लिए प्रयुक्त करने हेतु हैं| कहीं और इनका प्रयोग करने की सख्त मनाही हैं और गलती से भी इनका प्रयोग करने पर होने वाले परिणाम के लिए लेखक जिम्मेदार नहीं होगा|

Friday, November 27, 2009

आप भी शुरू हो जाइए क्यूंकि लिखना जरूरी है...

साहित्य का अपना ही आनंद है और मुझे लिखना बहुत पसंद है| मुझे परीक्षा की उत्तर पुस्तिका लिखना छोड़कर बाकि कुछ भी लिखने में आनंद आता है| लेकिन समस्या तब होती है, जब मैं लिखने बैठता हूँ और कोई विषय नहीं सूझता| तभी लिखने का सारा उत्साह उड़ जाता है और फिर जो भी इच्छा रहती है वो बस इच्छा बनकर ही रह जाती है|
एक समस्या और है कि मुझे हिंदी में लिखना प्रिय है किन्तु हिंदी साहित्य की जो स्थिति है वो किसी से छिपी नहीं| ना तो अब ढंग कि कोई किताब छ्प रही है और ना ही किसी को उन्हें पड़ने में रूचि| लोग शेक्सपियर से लेकर डैन ब्राउन और जेफ्फ्रे आर्चर को पढ़ लेते है किन्तु प्रेमचंद्र और निराला को पढने वाले लोग गिनती के ही रह गए हैं|
ये दो तथ्य पहला कि विषय का नहीं सूझना और दूसरा कि लिख भी दिया तो पढेगा कौन मुझे सदा निरुत्साहित करता है कि लिखकर क्या होगा और मेरी लिखने कि इच्छा दबी कि दबी रह जाती है|मैं अपने आपको अन्य कामों में व्यस्त दिखाकर खुश होता रहता हूँ कि मेरे पास लिखने के लिए समय नहीं है, किन्तु जो भी हमारे कैम्पस कि लाइफ को जानते हैं उन्हें मालूम है कि यह बस एक बहाना ही है - काम को टालने का और अपने आपको भ्रम में रखने का| अगर सही में इच्छा हो तो समय किसी भी कम के लिए निकाला जा सकता है|
तो मैंने अब सोचा है कि चाहे जो हो जाये मैं लिखूंगा..क्यूंकि अब मुझे यह एहसास हुआ है लिखना जरूरी है, निरंतर लिखना जरूरी है क्यूंकि यही तो एक मौका है अपनी कल्पनाओं को उडान देने का, अपनी सोच को शब्दों का रूप देने का.......
यही तो वो जगह है जहाँ आप अपना सच्चा रूप दिखा सकते हैं, बेफ़िज़ूल के दिखावे से उठकर अपने मन कि बातों को दूसरों तक पहुंचा सकते हैं....तो मैं कहूँगा आप भी शुरू हो जाइये..भाषा चाहे जो भी हो...माध्यम जो भी हो...बस लिखना शुरू कीजिये और लिखते ही जाइये..क्यूंकि लिखना जरूरी है...बहुत ही जरूरी है....

एक और सेमेस्टर निकल गया....

एक सेमेस्टर और निकला, कुछ समझ में ही नहीं आया ,
अब तो सब कुछ लगता है एक मोहमाया |
लगता है सब मोहमाया, इन सबसे मुक्ति मिले,
कम मेहनत करके सफलता प्राप्त करने की कोई युक्ति मिले |
समय बीतता जा रहा, ना बंदी मिली ना CG मिली,
इस KGP नामक जंगल में बस DC की शरण मिली |
DC की शरण मिली है, जीवन चैन से है कट रहा,
लेकिन प्लेसमेंट की हालत देखकर अपना हेल्थ बिगड़ रहा|
अब तो IIT ब्रांड की महिमा भी धुंधली पड़ी है, पता नहीं क्या होगा ,
नौकरी ना मिली तो देखने लायक हाल होगा , जो होगा सो तो होगा |

किन्तु पाठक गण चिंता ना करें, मैं frustt नहीं हुआ हूँ ,
जीने की इच्छा बाकी है, अभी dereg नहीं हुआ हूँ |
हर सेमेस्टर के बाद मुझे ऐसी ही चिंता है होती,
पढने और कुछ करने की जबरदस्त इच्छा है होती|
पर ये फेज भी निकल जाता है, ये मौसम भी कट जाता है,
हम मिलते हैं फिर DC के प्यार में, कैंटीन की भाट पर|
फिर वही चक्र शुरू हो जाता है, जो हमेशा है चलता,
आपका प्यारा ये दोस्त फिर दुखी सा है दीखता |

Thursday, October 22, 2009

जीवन की सार्थकता

जीवन में सार्थकता की तलाश में, हर एक कदम रखते गए ;
हर कदम के बाद हम तो, और भी खोते गए ।
हर बार कुछ करना चाहा, जो एक नयी पहचान दे;
किंतु हर वक्त हम तो, परिभाषाओं की खोज में उलझे मिले
हर बार नए रास्ते खोजे और बढ़ चले हम जोश में
किंतु ना जाने क्यूँ;
हर नए रास्ते पर हम रास्ते दोहराते मिले ।



किंतु अब लगता है,
जीवन की प्रगति का मसला मेरे समझ में आया है;
अपनी इस सार्थकता की तलाश को मैंने खोखला पाया है ।
यह समस्या मेरी नहीं कईयों की है,
जिन्होंने अपने जीवन की प्रगति को समझने में भूल की है ।
वास्तव में देखा जाए तो यह केवल नजरों का खेल है,
इसीलिए किसी की जिंदगी उसके लिए सफल या असफल है ।
जीवन में परिवर्तन इतने धीरे हैं होते , हमें कभी भी महसूस नहीं होते;
हमारी नज़रों के सामने जीवन युहीं निकल जाता है ,
हमारे लिए कुछ भी सार्थक नहीं हो पाता है ।


लेकिन वास्तविकता यह तो नहीं होती है,
हम सभी ने अपने जीवन में प्रगति की होती है ।
हर कोई अपने जीवन में कुछ न कुछ सार्थक अवश्य करता है,
किंतु यह समय का चक्रव्यूह हमें महसूस नहीं होने देता है ।
यह समय हमें महसूस नहीं होने देता कि हमने कुछ पाया है ,
हमें तो लगता है कि हमने बस कीमती क्षणों को गवाया है ।

और हम भागते रहते हैं,
उन क्षणों को पकड़ने के लिए, अपने आपको साबित करने के लिए.....
शायद हम समय के इस खेल को समझ नहीं पाते या फ़िर समझना नहीं चाहते ।
यह प्रक्रिया चलती रहती है, हमारे प्रश्न जस के तस रहते हैं...
जीवन में वही भागमभाग, वही जीवन के सार्थकता की पुरानी आकांक्षा .......

Monday, June 1, 2009

एक अनुभव.....

जीवन में ख्वाइशें कम नहीं ,
हिम्मत भी है मन में, कम नहीं ;
फ़िर भी यार, सफलता मिल नहीं पाती है ,
जब जिंदगी में बंदी आ जाती है ।
मैं कुछ अतिशयोक्ति नहीं करता हूँ ,
अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देता हूँ ;
मेरे अनुभव किसी के आ सके काम ,
तो यही होगा सरस्वती को मेरा प्रणाम ।


एक दिन मेरा मन भी भटका था ,
मेरा दिल भी किसी पर अटका था,
मैंने
भी औरों को देखकर,
बड़ों की बातों पर ध्यान नहीं दिया था ;
एक सुंदर सी बंदी से नाता जोड़ने का ,
एक असफल प्रयास किया था ।
शुरुआत के कुछ दिन तो अच्छे बीतें ,
मैंने भी दोस्तों को लड्डू बांटे;
फ़िर परिवर्तन का दौर शुरू होता है ,
ये सीधा साधा आशुतोष, आशु डार्लिंग बन जाता है ।
पहले दिनचर्या बदलती है ,
फ़िर मैं ही बदल जाता हूँ ;
दोस्तों को भूल जाता हूँ ,
दिन भर उन्हीं के चक्कर लगाता हूँ ।


फ़िर कुछ ही दिनों में टेस्ट आ जाते हैं,
दोस्त मुझे कह कह के थक जाते हैं ;
मैं तो उन्हीं में मगन रहता हूँ ,
एक आज्ञाकारी की भांति, उन्हीं के गुण गाता हूँ ।
टेस्ट का समय भी बीत जाता है,
मुझे फक्का लग जाता है ;
बंदी को भी ये पता चल जाता है;
उसे मेरे में नहीं दीखता फ्यूचर ,
किस दुसरे को लेकर हो जाती वो रफ्फूचक्कर ।


फ़िर मेरा पौरुषत्व जगता है ,
दिमाग सही रास्ते में आ जाता है ;
बंदियों से अपने को दूर ही रखता हूँ ,
दूसरो को भी जितना हो सके यही सलाह देता हूँ ।
जिस दिन से बंदी लाइफ से हटी है ,
मेरी जिंदगी की ट्रेन सही रस्ते पर दौडी है ;
आप अपने जिंदगी की ट्रेन ट्रैक से मत उतरिये,
माँ-बाप का काम अपने कन्धों पर मत लादिये ।

Friday, May 29, 2009

आपकी याद में ....

हमारी मोहब्बत को दगाबाजी का नाम मत दीजिये ,
वफादार हूँ , बेवफा कह बदनाम मत कीजिये ।
हम पर शक कर खुदा का अपमान मत कीजिये ,
सजा सही , पर भूलने का असह्य इल्जाम मत दीजिये ॥

कैसे भूल सकता है ये दिल वो मिलन वो मौसम ,
याद करते हैं तो मर जाते हैं सारे गम ।
अविश्वासी सा अधम सोचकर मत ढाइए सितम ,
कब दिन लौटकर आयेंगे, सदा मिन्नतें करते हैं हम ॥

Saturday, March 28, 2009

और हम जैसे पागल मौत को, खुशी से गले लगायेंगे....

कौन कमबख्त कहता है कि,
ज़िन्दगी धोखा नहीं दे पाती है।
मौत की वफ़ा के सामने,
ज़िन्दगी हमेशा, बेवफाई निभाती है ।
इस क्षणभंगुर जीवन को देखकर,
मन मेरा उचट जाता है ।
यह संसार कुछ भी नहीं,
बस एक मोह और माया है ।
शाश्वत तो केवल मृत्यु है ;
हर पल,हर जगह....बस मौत का इक साया है ।

लोग कहते हैं -
चार दिन कि ज़िन्दगी है;
हँस लो-गा लो,दिल से जी लो ।
किंतु मैं,
भ्रम
में जी नहीं सकता हूँ;
चारों तरफ़ कि नश्वरता को देखकर भी,
चेहरे पर झूठी खुशी, ला नहीं सकता हूँ

कुछ कहते हैं,
यह तो पागल है, यह सनकी है ।
कुछ के लिए मैं एक बेकार कवि हूँ...
किंतु मैं कर भी क्या सकता हूँ...
सत्य को देखकर उससे मुहं मोड़ नहीं सकता
घुट-घुट कर जी नहीं सकता

मुझे किसी के कहने या बोलने की परवाह नहीं ,
समाज के इन उल्लुओं के साथ जीने की चाह नहीं ,
क्योंकि, मैं जानता हूँ
जब मौत दरवाजे पर दस्तक देगी ,
तो ये सब के सब रोयेंगे,गिरागिरायेंगे....
और हम जैसे पागल मौत को, खुशी से गले लगायेंगे ।


Thursday, January 1, 2009

नववर्ष की ढेरों शुभकामनाएं !!!!

बीते वर्ष की यादों को सहेजते हुए,
नए वर्ष की नई आकाँक्षाओं के साथ,
नववर्ष का हम सभी करें स्वागत ,
गम को भुलाकर लौटे सबके चेहरे पर मुस्कराहट ।

मेरी तरफ़ से आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं ,
आप सभी की पुरी हों सारी कामनाएं ।
नए वर्ष में नई सफलताएं प्राप्त करें,
जो ना कर सके बीते वर्ष में,
वे सपने भी आप साकार करें ।

किंतु हाँ ,
आज नववर्ष की पहली संध्या पर,
एक गुजारिश करूँगा आपसे,
भौतिकवादिता की चल रही अंधी दौड़ में आप शामिल ना हों,
अपने भीतर की इंसानियत को मरने न दें ।
आज एक प्रण हम सभी ले लें ,
अपने जीवन में थोड़ा परिवर्तन लायें, कुछ ऐसा करके दिखाएं ,
जो कम से कम एक इंसान के गमों को दूरकर
उसके चेहरे पर जीवन की मुस्कराहट लाये ।