Sunday, May 15, 2016

क्यूँ चुभी ये बात?

कल कुछ बात हुई,
बात साधारण ही थी,
साधारण बातचीत का ही क्रम था
और उस क्रम में मैंने कुछ कह दिया
उसमे ना तो कोई नसीहत थी, और ना ही ज्ञानवान बनने की इच्छा
बस एक तर्क था, स्थितियों का एक विश्लेषण था
कहा इसलिए कि वो बात सही लगी, महत्वपूर्ण लगी
मेरे खुद के लिए नहीं,
सपनों के लिए, भविष्य के लिए ।

लेकिन तब बात चुभ क्यूँ गयी?
क्यूँ चुभी ये बात?
बात तो सीधी सी ही थी, निश्छल भावनाएं शब्दों के रूप में थी
और क्रम भी बड़ा सहज ही था ।
तो गलती किसकी,
बात की, परिस्थितियों की, भावनाओं की
या दो भिन्न वयक्तिवों की
या फिर दो वयक्तिवों के अहम की?

सोचने वाली बात है,
कुछ दिनों पहले ही मुझसे कहा गया था,
किसे चुनो,  कैसे चुनो
क्या करो, क्या ना करो
तब तो बात ऐसे ही निकल गयी थी,
ना तो चुभन थी, ना ही टीस
बस एक समझ दिखी थी ।

Wednesday, April 20, 2016

चंद पंक्तियाँ !

खुद को जानना ही काफी होता तो क्या होता,
दूसरों को समझना ही काफी होता तो क्या होता,
बस यूँ ही बोलना ही काफी होता तो क्या होता मगर,
सही वक़्त पे बातों को अगर समझा देते, तो क्या वो काफी होता?
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इक अहसास था जिसे समझ ना पाया,
समझा भी तो शायद समझा न पाया
सुना है-वास्तविकताओं और तर्क से चलती है ज़िन्दगी
तो फिर इस अहसास को क्युं दबा न पाया?
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थोड़ा समय देते तो मैं समझ ही जाता,
इन बातों को भुला भी पाता ,
हर जवाब इतना सीधा नहीं होता
कई बार वक्त ही हमें समझा है पाता ।
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मंजिलें तो मिल ही जाएंगी,
जरूरी है.... घर से निकलना ।
हर फासला क्यों तुम ही तय करो,
जरूरी है...दो कदम तुम चलो , दो कदम हमारा चलना।
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कभी तू भी तो दो कदम चल
कभी तू भी तो हाथ बढ़ा,
कभी तू भी तो कुछ कह,
ऐसा क्या अहम है तेरा,
कभी तू भी तो लग कि तू भी एक इंसान है |
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हर कदम मैं ही क्यूँ चलूँ ,
तुम भी तो कुछ कहो,
जब सफर साथ का है तो,
बाधाएं तुम भी तो हल करो ।
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पिंजरे से दूर भागना तो तेरी फितरत है, 
लेकिन इतना भी उन्मुक्त न हो जा, कि खुला आसमान भी पिंजरा लगने लगे।

Saturday, March 12, 2016

सच्चा मानव !

बचपन की सीखें 
पढ़ी हुई चंद पंक्तियाँ, आप भुला नहीं पाते हो
ऐसा ही कुछ था,
मैंने पढ़ा था - मानव का जीवन विनिमय की ऐसी तुला है जिसमे कोई पासंग नहीं है !
लगता है.. मैंने ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया 
जिंदगी भर इसे संतुलित करने का प्रयास करता रहा 
सोचा कम से कम सच्चा मानव तो बन पाउँगा! 
शायद यहीं गलती हो गयी, असली मानव तो वो है,
जो तुला को किसी एक तरफ झुका सके,
कुछ ना कुछ किसी ना किसी को बेच सके, अक्सरहां वास्तविकता से ज्यादा 
और सबसे ख़ास बात तो ये है-यहाँ सब बिक  सकता है,
इंसान कर्म भावनाएं सपनें धर्म संस्कृति और आध्यात्म भी !