Saturday, April 23, 2011

दुःख नहीं कि हमें मन चाहे दृश्य ना मिले...


आज सोचता हूँ तो,
मझधार में फंसी कश्ती की तरह,
कभी किनारा ना मिला
हाथ में फंसे रेत की तरह,
सहारा ना मिला |

समय को पकड़ने की,
 ना जाने, कितनी ही कोशिशें कर डाली |
स्तिथियों को बदलने की,
ना जाने, कितनी ही मिन्नतें कर डाली |

फिर भी,
दुःख नहीं कि, हर कदम गलत ही दिखे,
दुःख इस बात का है कि,
हमने देखने कि कोशिशें कर डालीं| 
दुःख नहीं कि, हमें मन चाहे दृश्य ना मिले ,
दुःख इस बात का है कि,
जो भी मिले, हमने उनकी बेईज्ज़ती कर डाली |