आज सोचता हूँ तो,
मझधार में फंसी कश्ती की तरह,
कभी किनारा ना मिला
कभी किनारा ना मिला
हाथ में फंसे रेत की तरह,
सहारा ना मिला |
सहारा ना मिला |
समय को पकड़ने की,
ना जाने, कितनी ही कोशिशें कर डाली |
स्तिथियों को बदलने की,
ना जाने, कितनी ही मिन्नतें कर डाली |
फिर भी,
दुःख नहीं कि, हर कदम गलत ही दिखे,
दुःख इस बात का है कि,
हमने देखने कि कोशिशें कर डालीं|
दुःख नहीं कि, हमें मन चाहे दृश्य ना मिले ,
दुःख इस बात का है कि,
जो भी मिले, हमने उनकी बेईज्ज़ती कर डाली |
1 comment:
nice1 mishra ji
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