Tuesday, July 26, 2011

ऐ-हुक्म के आकाओं.....

ऐ-हुक्म के आकाओं, मेरी इक बात तुम सुन लो ;
इक आग उठने वाली है, हो सके तो बच लो |

ये सिर-फिरी मनमानियां, चल ना पाएंगी इस क़दर ;
हमारे सब्र को न तोड़ो, तुम अब गिरोगे जमीन पर |

इन आँधियों ने कितनों के, मिटा दिए हैं नामों-निशां,
अभी भी वक़्त है सम्हल लो, न तबाह करो ये गुलिस्तां |

इक नसीहत है तुम्हें, इतिहास के पन्नों को पलट लो ;
इन्कलाब की आवाज़ गूंज रही, इन इशारों को समझ लो |


1 comment:

Manish Kumar said...

आपकी पहली कविता पढ़े हैं, मज़ा आ गया..... अब अविमुक्तेश जी के साथ-साथ एक और कवी मिले हैं :)