हालाँकि मेरी रेलयात्रा अक्सरहा किताबों के साथ ही गुजरती है किन्तु कभी-कभी लोगों के बीच होने वाली तरह-तरह की बहसों से भी काफी समय निकल जाता है | इस बार की गर्मी की छुट्टियों में जब घर जा रहा था तो मेरे आसपास वाली सीट पर कुछ हमउम्र थे और कुछ बड़े थे | मैं यह देखकर खुश हुआ कि चलो आसपास बच्चों के साथ कोई परिवार नहीं है, नहीं तो पूरी यात्रा या तो उनकी शैतानियों से या फिर उनकी चिल्लाहटों से ही बीतती | हांलांकि इस बार भी आसपास किसी लड़की को ना पाकर थोड़ी निराशा तो हुई, किन्तु अब इस निराशा कि तो अब आदत हो चुकी है और वैसे भी हम भारतीय लड़कों का भाग्य इस विषय पर कहाँ साथ ही देता है ?
खैर जो भी, कुछ समय के बाद ही जब परिचय का दौर गुजर गया तो मुझे लगा गया कि अब परिचर्चाओं का समय हो गया है, बस किसी विषय के मिलने की देर है | इस कमी को भी पेपर में छपी एक खबर ने पूरी कर दी और अचानक से एक वृद्ध सज्जन बोल पड़े-" आज की पीढ़ी में भी न तो संस्कार है, न नैतिकता है और ना ही सफलता के लिए धैर्य | सबको सब कुछ जल्दी जल्दी ही चाहिए | कहाँ हमें पहले से कुछ ना मिला फिर भी हमने धैर्य न खोया, कभी जल्दबाजी नहीं की, कभी कोई शॉर्ट-कट नहीं लिया | एक एक तिनका जोड़कर सब बनाया और ये हैं कि इन्हें तो सब कुछ एक क्षण में ही चाहिए | "
तभी सामने से आवाज़ आई "अंकल समस्या हमारी जल्दबाजी में नहीं आपके देखने के नज़रिए में है | आजकल की दुनिया पहले के समय से काफी फास्ट हो गयी है | अगर आज दौड़ेंगे नहीं तो पीछे रह जायेंगे | आज कोई कुछ आपको देता नहीं है, आपको छीन के लेना पड़ता है | आज केवल योग्यतम की उत्तरजीविता(Survival Of Fittest) का सिद्धांत चलता है | और सफलता के लिए सब कुछ जायज़ है नहीं तो आप पिछे रह जायेंगे | ये नैतिकता, धैर्य..सब किताबी बातें हैं | असल जीवन में ये नहीं चलता |"
कोने में बैठे एक सज्जन काफी देर से यह सब सुन रहे थे | अभी तक तो उन्होंने एक भी शब्द न बोला था, बल्कि उनकी प्रतिक्रियाओं से ऐसा लग रहा था जैसे इस बहस से वो बोर हो चुके थे, शायद यह विषय ही काफी पुराना हो चूका था | फिर भी काफी देर चुप रहने के बाद अचानक वो बोल पड़े -" शायद तुम सही बोल रहे हो| हमारे नज़रिए में ही कोई खोट है और ये सब किताबी बातें हैं या तुम्हें किताबी लगती हैं | किन्तु एक बात कहना चाहूँगा किताबें आसमान से नहीं टपकती | उनकी प्रेरणा इस दुनिया से मिलती है | किताबें भी जिंदगी के अनुभवों से ही लिखी जाती हैं|"
सब निरुत्तर सा उस सज्जन का मुहं देखने लगे |
10 comments:
दूसरे का निवाला छीन लेने का नाम ही वर्तमान है। पहले हम सोचते थे कि सब को मिले लेकिन आज सोचा जाता है कि केवल मुझको मिले। बस यही संस्कृति का अन्तर संस्कारों पर चोट करता है। बहुत अच्छी पोस्ट, बधाई।
सही बात है । कुछ तो खैर जमाना भी बदला है। मूल्य भी कुछ हद तक बदले हैं। पर मूल कभी नहीं बदलता।
किताबें भी जिंदगी के अनुभवों से ही लिखी जाती हैं|"
-बहुत सही!!
सार्थक पोस्ट!
किताबें भी जिंदगी के अनुभवों से ही लिखी जाती हैं|
बहुत बढ़िया बात कही है.
"आपको छीन के लेना पड़ता है| आज केवल योग्यतम की उत्तरजीविता(Survival Of Fittest) का सिद्धांत चलता है| और सफलता के लिए सब कुछ जायज़ है"
जैसे वाक्य जंगलराज के लिए सही होंगे मगर हम अपने समाज को सभ्य बनाते हैं या जंगलराज, यह भी हमें ही सोचना है.
"किताबें आसमान से नहीं टपकती | उनकी प्रेरणा इस दुनिया से मिलती है | किताबें भी जिंदगी के अनुभवों से ही लिखी जाती हैं|"
बात पते की थी इसलिए निरुत्तर तो होना ही था - अच्छा आलेख
स्मार्ट इन्डियन ने काफी अच्छी प्रतिक्रया दी, सहमत.
योग्यतम की उत्तरजीविता....good translation
आज समाज को संवेदनशील लोगों की जरूरत है। आज की भ्रष्ट समाज में संवेदनाएँ जिन्दा हैं, यह अपने आप में बडी बात है। ब्लॉग की शुरूआत करने के लिये ढेर सारी शुभकामनाएँ।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश, सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है। इस संगठन ने आज तक किसी गैर-सदस्य, या सरकार या अन्य बाहरी किसी भी व्यक्ति से एक पैसा भी अनुदान ग्रहण नहीं किया है। इसमें वर्तमान में ४३०९ आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : ०१४१-२२२२२२५ (सायं : ७ से ८) मो. ०९८२८५-०२६६६
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nice one...start writing stories...u'll go far ahead...hamara mishra next chetan bhagat hoga :P
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