Thursday, December 25, 2008

"अंतत:"

पृथ्वी का जब जन्म हुआ ,
कलाअँधियारा था छाया ।
जीवन की झलक न हलचल थी ,
सब ओर थी मृतपन सी साया ।
ईश्वर ने इसको दूर किया ,
जल अमृत का बौछार किया ।
सुंदर प्रकृति को रच डाला ,
धरती को अनोखा कर डाला ।
सृष्टि के सर्वोच्च शिखर पर ,
मानव को बैठा डाला ।
लेकिन इस अनुपम अमृत को ,
मानव ने किया विष का प्याला ।
निज स्वार्थ हेतु - निज लालच से ,
सब कुछ अंगार बना डाला ।
वह भूल गया ख़ुद अपने को ,
ईश्वर का कोप बना डाला ।

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